क्या न्याय का चेहरा राजनीतिक विशेषाधिकार होगा? — विकास बराला की नियुक्ति पर सवाल

Vikas Barala

भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि एक नैतिक मार्गदर्शक है। यह समानता, न्याय और जवाबदेही जैसे मूल्यों को सुनिश्चित करता है। जब सरकार किसी व्यक्ति को अदालत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करती है, तो जनता अपेक्षा करती है कि वह व्यक्ति इन मूल्यों का प्रतीक हो। मगर हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा विकास बराला को सहायक महाधिवक्ता (Assistant Advocate General) के रूप में नियुक्त करने से इन उम्मीदों को गहरा आघात पहुंचा है।


विकास बराला कौन हैं और विवाद क्यों हुआ?

विकास बराला भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और हरियाणा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला के पुत्र हैं। वर्ष 2017 में उन पर एक युवती, वर्णिका कुंडू, का पीछा करने और कथित रूप से अपहरण का प्रयास करने का आरोप लगा था। वर्णिका, जो एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की बेटी हैं, ने साहस दिखाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी कि रात के समय चंडीगढ़ में विकास और उनके एक मित्र ने शराब के नशे में उनकी कार का कई किलोमीटर तक पीछा किया, रास्ता रोका और उनके साथ जबरन टकराव की कोशिश की।

यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना और महिलाओं की सुरक्षा, राजनीतिक प्रभाव और न्याय प्रणाली की पारदर्शिता जैसे अहम मुद्दे सामने आए। अब, उसी व्यक्ति को राज्य का विधिक प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है। क्या यह केवल एक प्रशासनिक निर्णय है या राजनीतिक ताकत का एक चिंताजनक उदाहरण?


कानून बनाम नैतिकता: क्या केवल कानूनी रूप से निर्दोष होना काफी है?

हमारे देश में “जब तक दोष सिद्ध न हो, व्यक्ति निर्दोष माना जाता है”—यह सिद्धांत बिल्कुल सही है। लेकिन क्या केवल कानूनी रूप से निर्दोष होना इतना पर्याप्त है कि आप सरकार का चेहरा बनें, वो भी अदालत में?

सहायक महाधिवक्ता का पद एक संवेदनशील और सम्मानजनक दायित्व है। वह न सिर्फ सरकार की ओर से कोर्ट में पक्ष रखता है, बल्कि न्याय व्यवस्था का भरोसा भी जनता को दिलाता है। क्या ऐसे व्यक्ति को यह पद देना उचित है, जो स्वयं महिला सुरक्षा के गंभीर मामले में आरोपी रहा हो?

यह सवाल नैतिकता का है। यह सवाल सार्वजनिक भरोसे का है।


जनता को क्या संदेश जा रहा है?

वर्णिका कुंडू ने इस नियुक्ति पर प्रतिक्रिया दी, “यह सरकार के मूल्यों को दर्शाता है।” यह एक ऐसा बयान है जो सीधे जनता के मन की बात कहता है।

यह नियुक्ति यह संदेश देती है कि सत्ता के नजदीक रहने वालों के लिए आरोप मायने नहीं रखते। यह पीड़ितों को हतोत्साहित करता है और अपराधियों को प्रोत्साहन देता है।

अगर ऐसे व्यक्ति को सरकार कानूनी जिम्मेदारी सौंपती है, तो यह संदेश जाता है कि राजनीति न्याय से ऊपर है। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।


महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रणाली पर इसका प्रभाव

भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर काफी प्रयास हुए हैं। निर्भया कांड के बाद कानून सख्त किए गए, जागरूकता बढ़ी और महिलाओं की आवाज को ताकत मिली। लेकिन इन सब प्रयासों पर पानी फिर जाता है, जब एक महिला सुरक्षा के आरोपी को राज्य का कानूनी चेहरा बना दिया जाता है।

इससे यह आभास मिलता है कि सरकार के लिए महिला सुरक्षा सिर्फ नारेबाज़ी है—जमीन पर उनका आचरण कुछ और है।


क्या हम संवैधानिक मूल्यों से दूर जा रहे हैं?

संविधान हमें केवल कानून की किताब नहीं देता—वह हमें एक आदर्श देता है। वह आदर्श यह है कि सार्वजनिक जीवन में नैतिकता सर्वोपरि हो। सरकारों का कर्तव्य है कि वे केवल कानून के दायरे में न चलें, बल्कि जनता की भावनाओं, संवेदनशीलता और नैतिकता को भी समझें।

विकास बराला की नियुक्ति से यह सवाल उठता है: क्या सरकार संवैधानिक नैतिकता से भटक रही है? क्या अब पदों का आधार योग्यता नहीं, बल्कि राजनीतिक संबंध बन गया है?


क्या यह राजनीतिक विशेषाधिकार का मामला है?

लोकतंत्र में सबसे बड़ी उम्मीद यह होती है कि सभी नागरिकों के लिए एक ही नियम होंगे। लेकिन जब ऐसे व्यक्ति को न्याय प्रणाली में जिम्मेदारी दी जाती है, जिस पर खुद आपराधिक मामला चल रहा हो, तो यह विशेषाधिकार की राजनीति का उदाहरण बन जाता है।

यह नियुक्ति बताती है कि आज भी सत्ता का केंद्र निष्ठा नहीं, संबंध है। अगर हम ऐसे निर्णयों को सामान्य मान लेंगे, तो आने वाले समय में न्याय केवल विशेष लोगों के लिए रह जाएगा—बाकी जनता के लिए यह एक दूर का सपना बन जाएगा।


अब क्या होना चाहिए?

  1. स्पष्ट और पारदर्शी नियुक्ति नीति – कानूनी पदों पर नियुक्तियों के लिए स्पष्ट मापदंड होने चाहिए। गंभीर मामलों में आरोपी व्यक्ति को तब तक नियुक्त न किया जाए जब तक वह अदालत से पूरी तरह निर्दोष न साबित हो जाए।
  2. जनता की भागीदारी – नागरिकों और मीडिया को ऐसी नियुक्तियों पर सवाल उठाते रहना चाहिए ताकि जवाबदेही बनी रहे।
  3. पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा – पीड़ितों को यह भरोसा मिलना चाहिए कि उनका संघर्ष व्यर्थ नहीं जाएगा और उनका अपमान नहीं होगा।
  4. संवैधानिक मूल्यों की पुनः स्थापना – सरकारें केवल कानून के हिसाब से नहीं, संवैधानिक नैतिकता के अनुसार निर्णय लें।

कौन न्याय का असली प्रतिनिधि है?

यह सवाल केवल विकास बराला से जुड़ा नहीं है। यह सवाल उस सोच से जुड़ा है जो कहती है—“सत्ता के करीब हो तो कानून भी झुक जाएगा।”

हमें तय करना है कि हमारा देश किस दिशा में जाएगा। क्या हम उस भारत को बनाएंगे, जहां कानून का शासन होगा और न्याय हर व्यक्ति का अधिकार होगा? या फिर उस भारत को, जहां राजनीतिक संबंध कानून से ऊपर हो जाएंगे?

हमारे संविधान ने हमें एक रास्ता दिखाया है। अब हमें तय करना है—क्या हम उस रास्ते पर चलेंगे?

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