मीडिया, मराठी और सत्ता का दुरूपयोग: एक संवैधानिक चिंतन

Marathi Language

निधि शुक्ला | 22 जुलाई 2025

भारत के सबसे विकसित और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्य महाराष्ट्र में इन दिनों एक ऐसा विवाद खड़ा हुआ है जो सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे संविधान और सामाजिक सोच को भी कठघरे में खड़ा करता है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने नई शिक्षा नीति के तहत प्राथमिक स्कूलों में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का निर्णय लिया। यह तीन-भाषा फॉर्मूला अब स्कूलों में हिंदी, अंग्रेज़ी और मराठी तीनों भाषाओं को एक साथ पढ़ाने की बात करता है।

हालांकि, संविधान के अनुसार भारत में किसी एक “राष्ट्रीय भाषा” की घोषणा नहीं की गई है। हिंदी और अंग्रेज़ी देश की आधिकारिक भाषाएं हैं, और हर राज्य में क्षेत्रीय भाषा (जैसे महाराष्ट्र में मराठी) को भी मान्यता प्राप्त है। संविधान हर नागरिक को अपनी पसंद की भाषा में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है।

लेकिन इस फैसले के बाद, महाराष्ट्र में क्षेत्रीय भाषा समर्थकों, खासकर मराठी भाषा प्रेमियों के बीच नाराज़गी बढ़ गई। उन्हें यह निर्णय हिंदी थोपने की एक साजिश लगने लगा। इस विवाद में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) ने कानून के रास्ते पर न चलकर हिंसक तरीका अपनाया। MNS के कार्यकर्ताओं ने उन दुकानों को तोड़ दिया, जिनके मालिक मराठी नहीं बोल पाते थे। कई आम नागरिकों को सिर्फ इस कारण पीटा गया कि वे मराठी नहीं बोल सके।

ऐसी घटनाएं संविधान की मूल भावना के खिलाफ हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 “कानून के समक्ष समानता” और अनुच्छेद 15 “धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा” की गारंटी देता है। लेकिन जब राजनीतिक दल अपने हितों के लिए संविधान की अनदेखी करते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या ऐसे नेताओं को संविधान की समझ है? क्या वे शिक्षित हैं, या सिर्फ लोगों की भावनाओं के साथ खेल रहे हैं?

मीडिया का इस मुद्दे में रोल भी चिंताजनक रहा है। मीडिया की जिम्मेदारी होती है कि वह लोगों को सूचना दे, शिक्षित करे और सोचने पर मजबूर करे। लेकिन इस मामले में मीडिया ने सिर्फ घटना दिखाई, उसकी पृष्ठभूमि और संविधान से जुड़ा पक्ष सामने नहीं रखा। कई मीडिया संस्थानों ने या तो राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे को आगे बढ़ाया या फिर दर्शकों को केवल विवाद में उलझाए रखा। बीएमसी चुनाव नजदीक हैं, लेकिन कोई भी मीडिया प्लेटफॉर्म जनता की असली समस्याओं—जैसे साफ-सफाई, पानी, सड़क और प्रशासन—पर बात नहीं कर रहा।

इस माहौल में एक आशा की किरण युवा पीढ़ी है। रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत के 89% युवा संविधान के मूल्यों से परिचित हैं। वे डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिए अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। मीम्स, कमेंट्स और वीडियो के ज़रिए वे ना सिर्फ अपनी नाराज़गी जाहिर करते हैं, बल्कि मीडिया और राजनीति के बीच के असली रिश्तों को भी उजागर करते हैं।

लेकिन उन्हें भी समाज के व्यवहार से निराशा होती है। युवा मानते हैं कि संविधान में जो बातें लिखी हैं, वे किताबों तक ही सीमित हैं। समाज में उनका व्यवहारिक रूप नहीं दिखता। बड़े-बुज़ुर्गों का रवैया भी उन्हें यह विश्वास नहीं दिला पाता कि संविधान को वास्तव में लागू किया जा सकता है।

यह विवाद यह बताता है कि हमारा संविधान एक मजबूत दस्तावेज़ है, लेकिन उसे ज़मीन पर उतारने के लिए जनता की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है, यह पहचान और अधिकार का प्रतीक भी बन चुकी है। लेकिन जब किसी भाषा को ज़बरदस्ती थोपा जाता है या जब किसी भाषा बोलने पर किसी को अपमानित किया जाता है, तब लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है।

महाराष्ट्र इस समय सिर्फ भाषा संकट से नहीं गुजर रहा, बल्कि संविधान को न समझने और न मानने की गंभीर समस्या का शिकार है। अगर हम इस दूरी को नहीं मिटाते—जो संविधान कहता है और जो समाज में होता है—तो आने वाले समय में ऐसे विवाद और भी अधिक बढ़ सकते हैं।

भारत जैसे विविध देश में एकता थोपे जाने से नहीं, समझ और सम्मान से आती है। और इस समझ की शुरुआत संविधान की इज्ज़त और उसके व्यवहार से होनी चाहिए।

निधि शुक्ला स्वतंत्र पत्रकार है,  संवैधानिक अधिकारों और संस्कृति पर केंद्रित मीडिया शोधकर्ता के रूप में काम कर रही है।

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