अंकिता गुप्ता | 20 अगस्त 2025
“धारावी की चॉलें – घनी बस्तियां, जिनमें घर, कारखाने और पूरी की पूरी दुनिया बसती है।”
जब लोग “धारावी” का नाम सुनते हैं, तो ज़्यादातर के मन में सबसे पहले ख्याल आता है – एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी। लेकिन मेरे लिए धारावी की पहली यात्रा इस परिभाषा से कहीं अलग थी। यह सिर्फ़ भीड़भाड़ और छोटे-छोटे घरों तक सीमित नहीं था, बल्कि इन तंग गलियों में ज़िंदगी, संस्कृति और रचनात्मकता भी धड़क रही थी।
मेरी यात्रा एक साधारण ऑटो-रिक्शा की सवारी से शुरू हुई। जैसे ही ऑटो धारावी की गलियों में दाख़िल हुआ, ड्राइवर ने ज़ोर से एक रैप गाना बजा दिया। उसकी धुन गलियों की दीवारों से टकराकर गूंज रही थी। शुरू में मुझे यह अजीब लगा, लेकिन अगले ही पल मुस्कुरा दी। यही है धारावी – कच्चा, शोरगुल वाला, पर ऊर्जा से भरपूर। हॉर्न की आवाज़ें, ठेलेवालों की पुकार और संगीत – सब मिलकर मानो एक अनोखा संगीत रच रहे थे।
गलियां बेहद भीड़भरी थीं। स्कूटर रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे थे, बच्चे हंसते हुए दौड़ रहे थे और महिलाएं सब्ज़ियों से भरे थैले उठाए चली जा रही थीं। हवा में खाने की खुशबू, धुएं और धूल का मिश्रण था। मैं खुद से पूछ रही थी – “मैं आख़िर जा कहां रही हूँ?” और तभी हम कुम्हारवाड़ा पहुंचे – धारावी का मिट्टी के बर्तनों वाला इलाका।
मिट्टी की खुशबू और जलती भट्ठियां
यहाँ पहुंचते ही दृश्य बदल गया। चारों तरफ़ मिट्टी की सोंधी खुशबू फैली थी। ज़मीन पर कतारों में रखे ताज़ा बने दीये और घड़े धूप में सूख रहे थे। कहीं पहले से रंगे-रंजाए दीये सजाए गए थे। आंगनों में बड़ी-बड़ी भट्ठियां जल रही थीं और उनमें से काला धुआं उठ रहा था। पहली बार लगा कि मैं एक ऐसी जगह आ गई हूँ, जहां परंपरा आज भी सांस ले रही है।
कुम्हार से मुलाक़ात
इन्हीं गलियों में मेरी मुलाक़ात हुई 55 वर्षीय कुम्हार देवानंद परमार से। जब हम पहुंचे, वे धूप में बड़ी सावधानी से दीयों को कतारों में सुखा रहे थे। उनके हाथों में अद्भुत निपुणता थी। उन्होंने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया और अपने जीवन की बातें साझा कीं।
“यह हमारा पुश्तैनी काम है। हम गुजरात से बहुत साल पहले यहां आए थे। मेरे परदादा ने यह काम धारावी में शुरू किया था और तब से हर पीढ़ी इसे आगे बढ़ा रही है। यह सिर्फ़ व्यापार नहीं है, हमारी पहचान है।”
उन्होंने बताया कि कैसे कुम्हारवाड़ा की हर गली और हर घर इस काम से किसी न किसी रूप में जुड़ा है – ऊपर की मंज़िलों पर रहना, नीचे काम करना, आंगनों में दीये और बर्तन सुखाना और भट्ठियां जलाना। सचमुच पूरा इलाका एक बड़े कारखाने जैसा प्रतीत हो रहा था।

पुनर्विकास की चिंता
जब मैंने उनसे धारावी पुनर्विकास परियोजना के बारे में पूछा, तो उनका चेहरा गंभीर हो गया।
“सरकार कहती है कि हमें 1BHK फ्लैट मिलेंगे। लेकिन हम वहां अपना काम कैसे करेंगे? भट्ठियां कहाँ रखें? दीये कहाँ सुखाएँ? यह कोई दफ़्तर का काम नहीं है जिसे एक छोटे फ्लैट में कर लिया जाए। इस काम के लिए खुली जगह, आग और हवा चाहिए।” – वे कहते हैं।
उनकी बात सुनकर मुझे भी अहसास हुआ – जिन आंगनों और धुएं भरी भट्ठियों को मैंने देखा, उन्हें एक कमरे के घर में सोचना असंभव है। पुनर्विकास जहां बेहतर मकान देने का वादा करता है, वहीं यह सदियों पुरानी कला को मिटा भी सकता है।
मिट्टी में रचनात्मकता
आगे बढ़ते हुए मैंने और भी कार्यशालाएं देखीं। कहीं महिलाएं मिट्टी के बर्तनों पर रंग-बिरंगे डिज़ाइन बना रही थीं, कहीं नौजवान बड़े घड़े गढ़ रहे थे। हर जगह जुनून और कला झलक रही थी।
एक दुकान में लाल, पीले और सुनहरे रंगों से सजे दीये रखे थे, जो दीवाली के लिए तैयार लग रहे थे। साफ़ था कि कुम्हारवाड़ा सिर्फ़ बर्तन बनाने की जगह नहीं, बल्कि कला और कल्पना से भरपूर एक संसार है।
पिता का सपना
देवानंद अपने काम पर गर्व करते थे, लेकिन अपने बच्चों के लिए उनके सपने अलग थे।
“मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे यह काम करें। यह मुश्किल है और आमदनी भी पक्की नहीं है। मेरा बेटा नेवी में जाने की पढ़ाई कर रहा है और बेटी नर्स बनना चाहती है। हम बैकअप के तौर पर दूसरा काम भी करते हैं, लेकिन मैं चाहता हूँ कि वे दूसरी ज़िंदगी बनाएं।”
उनकी आवाज़ में गर्व और उदासी दोनों झलक रहे थे। गर्व – क्योंकि उनके बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और नई राह बना रहे हैं। उदासी – क्योंकि शायद उनके साथ उनकी पीढ़ियों की कला भी खत्म हो जाएगी। यही दुविधा कई परिवारों की है – परंपरा को थामे रखना या बच्चों के लिए बेहतर भविष्य तलाशना।

सोच और सबक
कुम्हारवाड़ा से निकलते वक्त मेरे हाथों में मिट्टी और आंखों में धुएं की परछाई थी, लेकिन दिल में एक पूरी कहानी दर्ज हो चुकी थी।
एक ओर है परंपरा – सदियों की कला, संस्कृति और पहचान।
दूसरी ओर है बदलाव – पुनर्विकास, आधुनिक घर और नई पीढ़ी के अवसर।
धारावी को बाहर से लोग सिर्फ़ “स्लम” कहते हैं, लेकिन अंदर यह जीवन, कारोबार और रचनात्मकता से भरा हुआ है। यहां का हर दिया सिर्फ़ मिट्टी का नहीं, बल्कि मेहनत, संघर्ष और आने वाले कल की उम्मीद की कहानी कहता है।
मेरे लिए यह यात्रा सिर्फ़ एक सफ़र नहीं थी, यह एक सबक था। इसने सिखाया कि धारावी सिर्फ़ गरीबी या भीड़भाड़ की जगह नहीं, बल्कि मज़बूती का प्रतीक है। यहां लोग मुश्किलों के बीच भी अपने हाथों से अपना भविष्य गढ़ रहे हैं।
जब मैं बाहर निकली, तो मुझे वही तेज़ रैप गाना याद आया। शुरुआत में यह बेमेल लगा था, लेकिन बाद में समझ आया कि यही गाना धारावी की असली पहचान है – शोरगुल भरा, ऊर्जा से लबरेज़, कभी अराजक, पर हमेशा ज़िंदा।
अंकिता गुप्ता एक युवा लेखिका और मीडिया शोधकर्ता हैं, जिन्हें शहरी जीवन, संस्कृति और बदलते समाज की कहानियां दर्ज करने में गहरी दिलचस्पी है। वे विशेष रूप से उन जगहों और लोगों पर लिखती हैं, जिन्हें अक्सर मुख्यधारा की नज़रों से अनदेखा कर दिया जाता है।