भक्ति से बंधुत्व तक – वारी में संविधानिक मूल्यों की अनुभूति

सुदर्शन शिंदे | 27 जून 2025

वारी केवल पंढरपुर की ओर यात्रा नहीं है, बल्कि यह भारतीय संविधान के विचारों से जुड़ी एक चलती-फिरती लोकतंत्र की परंपरा है। इसमें श्रद्धा और भक्ति तो है ही, लेकिन साथ ही यह समानता, बंधुत्व और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी सजीव अनुभव देती है।

वारी: एक सामाजिक और आध्यात्मिक आंदोलन

आषाढ़ी एकादशी के अवसर पर महाराष्ट्र के कोने-कोने से लाखों वारकरी पंढरपुर की ओर निकलते हैं। यह केवल धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि एक जनांदोलन है। इसमें जाति, धर्म, वर्ग, उम्र या लिंग का कोई भेदभाव नहीं होता – सभी साथ चलते हैं।

वारी की उत्पत्ति भक्ति आंदोलन से हुई है। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, चोखामेला, जनाबाई, सोयराबाई जैसे संतों ने न केवल भक्ति का संदेश दिया, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा भी दी। उस समय जब जात-पात के भेद चरम पर थे, उन्होंने समता और प्रेम का मार्ग दिखाया।

डॉ. सदानंद मोरे कहते हैं, वारी एक ऐसा ताना-बाना है जो लोगों को जोड़ता है। यह केवल भक्ति का नहीं, सामाजिक समानता का भी प्रतीक है।

वारी से समानता का अनुभव

संत तुकाराम कहते हैं:

“विष्णुमय जग वैष्णवांचा धर्म, भेदाभेद भ्रम अमंगळ”

यह अभंग संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में दिखने वाले समानता के सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है — यानी कानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं, और धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।

वारी में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। सभी एक जैसा खाते, सोते और चलते हैं। चाहे अमीर हो या गरीब, वारी में सब बराबर होते हैं। “माउली” शब्द हर एक को आत्मीयता से जोड़ता है।

संत चोखामेळा, जो दलित समाज से थे, ने पीड़ा जताते हुए पूछा था:

“हीन जाति मेरी हे प्रभु, कैसे करूं तेरी सेवा?”

इस वेदना का उत्तर संविधान के अनुच्छेद 17 ने दिया, जिसने अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया। लेकिन वारी में यह समता केवल कानून में नहीं, बल्कि व्यवहार में भी दिखती है।

बंधुत्व का सजीव उदाहरण

प्रत्येक दिंडी एक लघु लोकतांत्रिक इकाई होती है। बिना किसी औपचारिक नेता के भी नियमों का पालन होता है, सभी एक-दूसरे की मदद करते हैं। खाना, पानी, दवा और विश्राम – हर जरूरत को वारकरी सामूहिक सहयोग से पूरा करते हैं।

लातूर के किसान गणपति वाघमारे कहते हैं, वारी में कोई यह नहीं पूछता कि कौन किसका है – बस चलना है और एक-दूसरे का ख्याल रखना है। यही तो संविधान का बंधुत्व है।

ज्ञानेश्वर माउली की पालखी के प्रमुख चोपदार, राजाभाऊ चोपदार कहते हैं, जब तक विषमता है, तब तक समता दिंडी की आवश्यकता है। यानी वारी केवल भक्ति नहीं, बल्कि समानता की यात्रा भी है।

अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता

वारी केवल चलना नहीं है। यह गाने, बोलने और विचार प्रकट करने का मंच भी है। संतों के अभंग उस समय की सत्ता से पूछे गए प्रश्न थे। उन्होंने अन्याय, पाखंड और जातिभेद पर प्रहार किया।

यह सब संविधान के अनुच्छेद 19 – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – का सजीव रूप है। आज भी वारी में कीर्तन, भजन और अभंग के माध्यम से लोग अपने विचार रखते हैं और समाज को आइना दिखाते हैं।

आज की चुनौतियाँ

भले ही वारी भक्ति की परंपरा हो, लेकिन आज इसके सामने कुछ प्रमुख चुनौतियाँ हैं:

  1. राजनीतिक हस्तक्षेप – बैनर, प्रचार और तस्वीरों से वारी की पवित्रता प्रभावित हो रही है।
  2. पर्यावरणीय संकट – प्लास्टिक और कचरे से नदियाँ और पर्यावरण प्रदूषित हो रहे हैं।
  3. भीड़ प्रबंधन – लगातार बढ़ती भीड़ से दुर्घटना और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
  4. अदृश्य भेदभाव – बाहर से सब समान दिखता है, लेकिन दिंडियों में जिम्मेदारी बांटते समय जाति और लिंग आधारित भेद अब भी महसूस होता है।

वारी केवल एक परंपरा नहीं रही – यह एक चलता-फिरता संविधान बन गई है। यहाँ कानून की बातें किताबों तक सीमित नहीं रहतीं – ये हर कदम पर अनुभव होती हैं।

जब तक वारी रहेगी, तब तक समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता का अनुभव जीवंत रहेगा। वारी हमारी लोकतंत्र की असली परीक्षा है – शांत, लेकिन दृढ़ता से चलनेवाली।

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

हिन्दी
  • English
  • हिन्दी
  • मराठी
  • Scroll to Top