महाराष्ट्र: संतों की भूमि में संविधान यात्रा पर हमला क्यों?

डॉ. सागर भालेराव | २२ जून, २०२५

महाराष्ट्र की पहचान संतों की भूमि और समानता की भूमि के रूप में होती है। फुले-शाहू-आंबेडकर की धरती पर संत परंपरा ने सामाजिक क्रांति का बीज बोया, जिससे लोकतंत्र की नींव मजबूत हुई। संत परंपरा ने जातिव्यवस्था की नींव हिलाई। वैष्णव धर्म ने “एकमेका लागतील पायी रे” कहते हुए वैदिक परंपरा की कठोरता को चुनौती दी। लेकिन दुख की बात है कि कभी जिन संत ज्ञानेश्वर और उनके भाइयों को वेदाध्ययन से वंचित रखा गया, जिनकी वजह से उन्हें अपने माता-पिता तक खोने पड़े — वही परंपरा के अनुयायी आज फिर से अपने ज़हरीले विचारों का प्रदर्शन कर रहे हैं। और इस बार निशाना बनी है – संविधान दिंडी।

हर वर्ष महाराष्ट्र की प्रगतिशील शक्तियां महात्मा फुले की समताभूमि से संविधान दिंडी निकालती हैं। पिछले पंद्रह सालों से “एक दिन तो वारी अनुभव करनी चाहिए” इस संकल्प के साथ यह यात्रा जारी है। पुणे-मुंबई समेत पूरे महाराष्ट्र से समता में विश्वास रखने वाले लोग इकट्ठा होते हैं और संतों के विचारों का स्मरण करते हैं।

लेकिन अब एक नया आरोप लगाया जा रहा है कि ये प्रगतिशील लोग नास्तिक हैं — और यह आरोप वही समुदाय लगा रहा है जिसने कभी संत ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों को समाज से बहिष्कृत किया था। ये वही अधर्मी और तथाकथित धर्म के ठेकेदार हैं जिन्होंने कभी अछूतों को विठोबा के दर्शन से रोका, अस्पृश्यता को बढ़ावा दिया और भेदभाव को धर्म का नाम दिया।

आज यही लोग संविधान दिंडी से परेशान हैं। भले ही पंढरपुर के पारंपरिक पुजारी (बडवे) मंदिर व्यवस्था से हटा दिए गए हों, लेकिन उनके कट्टर विचार पुणे के कुछ समूहों में जीवित हैं। पुणे के पुलिस आयुक्त को लिखे एक पत्र में इन आधुनिक बडवों ने कहा है कि “संविधान दिंडी” में नास्तिक, देवी-देवताओं को गाली देने वाले संगठन, नक्सल समर्थक संस्थाएं, और लोकायत जैसे संगठनों के लोग भाग लेते हैं।

यह मानसिकता हमें सोचने पर मजबूर करती है — यही वे लोग हैं जिन्होंने संत तुकाराम की गाथा इंद्रायणी नदी में फेंकी, संत तुकाराम की हत्या की, संत चोखोबा को मंदिर में प्रवेश करने पर पीटा। और आज यही लोग हमें धर्म और परंपरा का पाठ पढ़ा रहे हैं।

संविधान दिंडी पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि यह शहरी नक्सलवादियों की साजिश है। यह आरोप वे लोग लगा रहे हैं जिन्हें न संविधान स्वीकार है, न उसके मूल्य, न ही पूजा की स्वतंत्रता का अर्थ मालूम है।

जबकि सच्चाई यह है कि संतों के विचार और संविधान एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जो समानता और करुणा संतों की वाणी में है, वही मूल भाव संविधान हर नागरिक तक पहुँचाना चाहता है। संत साहित्य से उपजा समानता का विचार आज भी संविधान दिंडी के माध्यम से जीवित है।

यह बात आधुनिक बडवे नहीं जानते कि संत साहित्य पर सबसे ज़्यादा शोध करने वाले विद्वान आज संविधान दिंडी के साथ खड़े हैं और उसमें सहभागी भी हैं।

संविधान प्रेमियों को इन धमकियों और झूठे आरोपों से डरने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जिस भागवत धर्म ने संत चोखामेळा, संत बंका महार और संत मुहम्मद शेख को अपनाकर ममता और समता का मार्ग दिखाया — उसी धर्म को आज कुछ लोग राजनीतिक रंग देने का प्रयास कर रहे हैं।

इन सभी लोगों को किसी दिन संविधान दिंडी के कीर्तन में बुलाना चाहिए, उन्हें समझाना चाहिए। शायद एक दिन वे भी सही राह पर लौटें — इस विश्वास के साथ कि संविधान सभी को बराबरी का अधिकार देता है और सोचने-समझने की शक्ति भी।

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